पश्चाताप भाग -1 Ruchi Dixit द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • अनोखा विवाह - 10

    सुहानी - हम अभी आते हैं,,,,,,,, सुहानी को वाशरुम में आधा घंट...

  • मंजिले - भाग 13

     -------------- एक कहानी " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ...

  • I Hate Love - 6

    फ्लैशबैक अंतअपनी सोच से बाहर आती हुई जानवी,,, अपने चेहरे पर...

  • मोमल : डायरी की गहराई - 47

    पिछले भाग में हम ने देखा कि फीलिक्स को एक औरत बार बार दिखती...

  • इश्क दा मारा - 38

    रानी का सवाल सुन कर राधा गुस्से से रानी की तरफ देखने लगती है...

श्रेणी
शेयर करे

पश्चाताप भाग -1


"पश्चाताप " यह रचना मैने प्रतिलिपि पर वेवसीरीज के तौर पर लिखी थी जिसे अब बिना परिवर्तित करे मै उपन्यास की रूप मातृभारती पर देने जा रही हूँ | प्रतिलिपि पर मैने इसे दस भागो मे प्रस्तुत किया था जो कि, पूर्णिमा का शशिकान्त के घर छोड़ने तक ही है | आगे का भाग मै मातृभारती पर देने जा रही हूँ | मुझे पूर्ण विश्वास है कि इच्छा की तरह ही आपलोग पूर्णिमा को भी उतना ही प्रेम व सम्मान देंगे | धन्यवाद 🙏
रूचि दीक्षित

अरे सुन रही है! ले जा इसे ! बिल्कुल भी ध्यान नही रखती बेटे का "| अचानक पूर्णिमा को नींद से झकझोर दिया हो जैसे , साल भर के बेटे को गोद मे उठाकर पानी से भरे टब मे छप-छप करके खेल रहा था जो ,कपड़े बदलने लगती है | सूजी हुई आँखे ऐसी लग रहा थी मानो टूटी हुई आशाओं ने अभी -अभी खूब सिकाई की हो इस पर | पूर्णिमा बेटे को सुलाकर , किचन मे दोपहर के भोजन का प्रबन्ध करने मे
लग जाती है| आज रह -रह कर हृदय पर बार- बार जैसे कोई प्रहार कर रहा हो | मन चित्कारे मार रोने को कर रहा किन्तु, मुँह पर हाथ रख दिया हो जैसे किसी ने | मन मे अतीत का एक पन्ना जो खुल गया | आँखें अनियंत्रित हो सावन की बारिश की तरह, वेदना रूपी बादल को समेटे ठिठक कर बरस पड़े हो ,जैसे सारी पीड़ा को बाहर निकालकर फैक देना चाह रहे हो | अपनी भूल के प्रति पश्चाताप का मरहम लगाने की जिम्मेदारी, अपनी आँखों को सौंप ,अतीत की गहराई मे डूब ,उम्मीदो की चालबाजी को याद करने लगती है | बचपन मे माँ के गुजरने के साथ ही मानो बचपन भी चला गया हो घर मे बड़ी होने की यही सजा थी |
भाई बहनों की परवरिश मे पूर्णिमा को खुद का कभी ख्याल ही नही रहा | और एक दिन ऐसा आया कि , जिस घर को सम्भालने मे उसने अपने बचपन की तिलांजलि या ये कहे कि वक्त ने ही उससे छीन कर जिम्मेदारियाँ पकड़ा दी थी | उसे छोड़कर ससुराल जाना पड़ा | बहुत दिनो से पूर्णिमा के पिता बहुत परेशान थे ,इसका कारण, पूर्णिमा की उम्र की सारी लड़कियों की शादी तो क्या दो बच्चों की माँ तक बन गयीं थी, उन्हें देख कर पूर्णिमा के पिता का मन आत्मग्लानि से भर जाता | सैकड़ों रिश्ते देख डाले थे, किन्तु परेशानी का कारण योग्य लड़के मिलना न था बल्कि आर्थिक तंगी थी | जो लड़के सुन्दर, पढ़े -लिखे , नौकरी, व्यवसाय में और आर्थिक रूप से सम्पन्न थे , उनसे तो बात करने मे ही पसीने छूट जाते थे |
बचपन से लेकर पढ़ाई -लिखाई और नौकरी मे लगने वाली घूस, कुछ शादी को लेकर अरमान, अर्थात दो पहिया, चारपहिया वाहन की माँग | अपनी बेटी को देने के लिए यह सब कर्ज उतारना था , जिसे वे खुद को बेचकर भी पूरा नही कर सकते थे | अतः एक दिन किसी रिश्तेदार ने उनके हालात समझ कर या ये कहे कि उनका बोझ उतारने की मंशा से एक रिश्ता बताया | लड़का पहले से शादीशुदा किन्तु औरत का देहान्त हो गया था | पूर्णिमा से उम्र मे बहुत बड़ा था| पूर्णिमा के पिता की आर्थिक विपन्नता ने उन्हें , इतना दीन और असहाय बना दिया था ,कि बिना कुछ विचार किये ही एक झटके मे ही हाँ बोल दिया | समाज के अप्रत्यक्ष तानो ने सर पर एक चिन्ता की गठरी रख दी थी मानो | किसी तरह सर का बोझ कम करना था | शादी की खास कोई तैयारी न थी, बावजूद दौड़भाग की अधिकता के, आखिर जो भी करना था, कर्ज लेकर ही करना था | खैर! वह दिन भी आया जब प्रवेश द्वार पर बारात आकर खड़ी हुई | दुल्हे की लाल आँखे और घोड़ी पर से उतरते लड़खड़ाते कदम यह बता रहे थे कि, वह सुरापान कर नशे मे धुत है| चारो तरफ अपने रिश्तेदारों से घिरा दूल्हा उन्हीं के द्वारा सम्भाला जा रहा था | मंडप मे फेरे लेते समय भी दूल्हा लड़खड़ाते हुए, कभी सेहरा तो कभी खुद गिरते -गिरते रिश्तेदारों द्वारा सम्भाल लिया जाता | खैर किसी तरह सात फेरे पूरे कराये गये | दूल्हे कि तरफ से लड़की के चढ़ाव पर कोई खास साजो -सामान नही आया था ,या यूँ कहें कि बस किसी तरह से रश्म अदायगी ही निभाई गई थी| विवाह का निपटान रीति रिवाजो के अनुकूल ही हुआ, फर्क इतना था कि बिना दान दहेज के लड़की बिदा हो गई | कार से उतरते ही चार- पाँच औरतों के साथ , मंगलगीत गाती एक अधेड़ उम्र की महिला ,हाथ मे पूजा की थाल लिए, वर-वधू को स्वागत रश्म के पश्चात, घर के अन्दर ले जाती है | कुछ रश्मे अभी बाकी थी ,कि दूल्हा ही न जाने कहाँ नदारत हो गया था | वहाँ उपस्थित महिलाए काना -पूसी करने लगी , उसी मे से कुछ शब्दों ने पूर्णिमा के कानों मे प्रवेश पाकर उसे विचलित कर दिया था | वह जान चुकी थी कि उसकी बदनसीबी ने अभी भी उसका पीछा नही छोड़ा | रात को सारे रिश्तेदार सो गये, पर पूर्णिमा को तो जैसे काले बादल ने घेर लिया था | आँखो की बरसात भी बादलों की कालिमा को साफ नही कर पा रही थी | अचानक धीरे से किवाड़ खुलने की आवाज आई, कमरे मे अंधेरा होने की वजह कुछ साफ नजर नही आ रहा था | पूर्णिमा थोड़ा डर गई उसे लगा मानो कोई समीप आकर बैठ गया और उसे अपनी तरफ पूरी शक्ति ले खींचने का प्रयास कर रहा है | पूर्णिमा खुद का बचाव करते छिटक कर दूर खड़ी हो जाती है, तभी लड़खड़ाती जिह्वा से "अरे! मुझसे भाग्ग रही हैं म्है तो तेरा पति हूँ |" और पूर्णिमा की तरफ इस प्रकार बढ़ता है जैसे भूखे शेर को बकरी दिख गई है | आखिर पुरूष बल के समक्ष मजबूर होकर पूर्णिमा ने स्वयं को समर्पित कर दिया |
सूखी धरा पर मानो बाढ़ ने तबाही का मंजर बिखेर दिया हो जैसे | पूर्णिमा का पति जैसे जंग जीतकर थकान को निद्रा के हवाले कर बेसुध हो गया | रात भर काले बादलो ने जल बरसाना नही छोड़ा , आज पूर्णिमा के चाँद ने अपनी चमक गवाँ दी हो जैसे | राख का ढेर हुई खुद को समेटी हुई रात एक करवट मे ही गुजार दी| सुबह कुंडी खड़कने की आवाज से, चौकती हुई पूर्णिमा ने उठकर, दरवाजा खोला तो देखा वही अधेड़ उम्र की महिला | "अरे! बहुरिया ले चाभी पकड़ हम
मुन्ना की माँसी हइन" " कल मुन्नवा अइसन दिमाग खराब करिस कि , सबसे परिचय करवाउब ही भूल गईन |" कुल रिश्तेदार चली गइन अब हमहूँ जा थईन | मुन्ना के माई -बाप बचपन मे ही गुजर गा रहिन अईस करके हमका रूकै के परिन पन अब हम जा थई बहुरिया ,अब आपन घर तुहिन सम्भाला | यह कह वह औरत पूर्णिमा के हाथ मे चाभी थमा देती है , पूर्णिमा भी समझने का प्रयास ही कर रही थी, कि आटो रिक्शा जो पहले से ही घर के बाहर इन्तजार कर रहा था वह औरत उस पर बैठकर "चला भइया!जल्दी चला! हमका पहिलइन देर होय गा बइन |" रिक्शा आगे बढ़ जाता है | नई दुल्हन को देखने की ललक सब मे होती है , खासकर तब जब एक बार पहले ही सुन्दरता के दर्शन हो चुके हो |पड़ोस की कुछ औरत जैसे उसके घर से बाहर निकलने का इन्तजार ही कर रही थी |पूर्णिमा की सुन्दरता को देख पड़ोस की औरते आपस मे ही "अरे !कितनी सुन्दर है बेचारी किस्मत फूट गई | न जाने क्या देखकर माँ बाप ने शादी की |" "हाँ बहन सच कह रही हो! मैने सुना माँ नही है बेचारी की, बाप भी बहुत गरीब है इसलिए कर दी होगी |" उनमे से एक बोली "अरे तो ! कोई अपनी बिटिया को भाड़ मे झोंक देता है क्या? देख न कितनी सुन्दर और मासूम है |" हम्म! लम्बी साँस के साथ "करम के लेख को भला कौन बदल सका बहन, जो लिखा वो तो भुगतना ही पड़ेगा |" पूर्णिमा पुनः कमरे मे दाखिल होती है | एक नजर बेसुध नींद मग्न पति पर डालते ही उसे रात की पीड़ा के अहसास ने फिर से छू लिया हो जैसे बादल अभी कहाँ छटे ही थे,आँखे पुनः बरस पड़ी | सामने दीवार पर ही लगे आइने के पास खड़ी होकर देर तक खुद को निहारती हुई मानो खुद से बाते कर रही हो, तभी सहसा "अरे! कोई है क्या! ", बाहर जोर से आवज आती है | जल्दी -जल्दी पल्लू को सिर पर करती हुई बाहर दरवाजे की ओंट मे खड़ी हो जाती है | बिना कुछ बोले शायद उस व्यक्ति को अपनी मौजूदगी का अहसास कराना था | उस व्यक्ति ने देखा दरवाजे की ओंट मे कोई खड़ा है, वह समझ गया कि यह कोई स्त्री ही है वह स्वयं भी अपनी नजरे घुमाकर दूसरी तरफ करता हुआ, मुन्ना है क्या? पूर्णिमा के सिर हिलाने पर उसी की परछाई पर नजर रखे उस व्यक्ति को हाँ मे जवाब मिला | "अरे! तो बाहर भेजिये न उसे ," वह आदमी बोला | "साले ने पैसे खा रख्खें हैं अभी तक नही दिये, चप्पले घिस गई चक्कर लगाते |" पूर्णिमा अन्दर जाकर पति को हिलाकर उठाने की कोशिश करती है | "अरे! क्या है? क्यों परेशान कर रही है मुझे |" नींद की झुंझलाहट मे उसका पति पूर्णिमा को झिड़कते हुए कहता है| तभी बड़ी ऊँची आवज से चौक कर बैठ जाता है | अरे मुन्ना! कहाँ छिपकर बैठा है! निकल बाहर ! , मेरा पैसा डकार गया ! शादी के पैसे कहाँ से आये तेरे पास? बाहर से ही वह व्यक्ति चिल्लाता हुआ बोले जा रहा था| तभी उसने पूर्णिमा से कहा "जा उससे कह दे मै घर पर नही हूँ|" पूर्णिमा असहाय, असमंजस से भरी, पर , "अरे! पर, वर मत कर! जो कहा है वो करके आ! |" पूर्णिमा बाहर पहले की तरह शान्त होकर खड़ी हो जाती है | वह व्यक्ति जैसे समझ गया हो पूर्णिमा के बिना कुछ बोले ही वह रहता है "उसने यह कह कर भेजा होगा कि कह दो मै घर पर नही |" मेरे घर पर भी बहन बेटियाँ है, खैर! इसे तो मै बाहर ही पकड़ूंगा ,साला बीबी को भेजकर झूठ बुलवाता है, तुझे तो मैं देख लूँगा |" बोलता हुआ वह व्यक्ति वहाँ से चला जाता है | पूर्णिमा उसी पलंग पर बैठ अपने पुराने दिनो को याद कर ही रही थी कि ,अचानक उसके कमर मे हाथ डाल किसी ने खीचने की कोशिश की खुद को छुड़ाने का प्रयास करने लगी, किन्तु शक्ति क्षीणता ने पुनः समर्पित करने को मजबूर कर दिया , शारीरिक तृप्ति को प्राप्त कर उसका पति कपड़े पहनते बाहर की तरफ निकल गया | रात्रि की तरह ही वह आसीम वेदना की अनुभूति को प्राप्त एक करवट मे ही वह घण्टो अपने भाग्य को कोसती पड़ी रही | पीड़ा के अभ्यास से थोड़ी शक्ति प्राप्त कर, धीरे -धीरे खुद को सम्भालती हुई पूर्णिमा, स्नानगृह मे प्रवेश कर जाती है , न जाने क्यों अपने ही शरीर के प्रति घृणित भाव रखती हुई ,देर तक उन स्थानो को साफ करती रही, जिसने उसे स्त्री की क्षीणता और असहाय अवस्था का आभास कराया | पूर्णिमा के दिन की शुरूआत, प्रात:स्नान के पश्चात दिन के पूजन से हुआ करती थी, पूर्णिमा स्नान के बाद इधर -उधर मंदिर तलाशती हुई , घर के कोनो से अपरचित जो थी किन्तु घर पर न कोई मन्दिर न भगवान | उस तलाशती नजर को जगह जगह यदि कुछ मिल रहा था, वह थी शराब की खाली बोतलें ,जो उसके भविष्य के दर्पण सा प्रतीत हो रहे थे | घर बहुत ही गन्दा ,छत सीलन से भरी थी, हॉलाकि कमरे काफी बड़े होने की वजह से धूप और हवा की कमी न थी | घर मे पुराने जमाने का छोटे परों वाला एक पंखा गुम्बदनुमा लटकता हुआ किन्तु हवा काफी अच्छी देता था| सामने कमरे मे दीवार से चिपकी हुई एक मेज जिस पर दीमको ने घर बना लिया था, उसी पर पीतल का एक पुराने समय का गुलदस्ता ,जो की काला पड़कर अपनी पहचान खो चुका था | पूर्णिमा उसे भी साफ कर उसकी पहचान वापस ले आई | पूरे दिन काम करने की वजह से वह बहुत थक चुकी थी | रसोई घर मे बनाने के लिए कुछ खास नही था, थोड़े से चावल पड़े थे ,जिसमे उसने दाल मिलाकर खिचड़ी तैयार की|
पति के घर से निकलने के बाद अभी तक कुछ पता न था |
पूर्णिमा उन पुरानी बातो को याद कर जिसने उसे अपने भाई- बहनो के साथ कुछ खुशनुमा पल दिये थे सोचती हुई, कब आँख लग गई पता ही न चला | मध्यरात्रि कुण्डी खड़काने की आवाज से अचानक उसकी नींद खुल जाती है, सामने पति को नशे मे धुत देख कर वह अलग कमरे मे जाने प्रयास करती है ,कि पति ने हाथ पकड़ कर कर पूरी तरह से भींच उसे बिस्तर पर पटक दिया |
साँसो को भींचे वह ,पीड़ा की चरम सीमा तक पहुँने के बाद मानो कोई उसके जख़्मो पर जल के छींटे मार रहा हो, अपने शरीर पर पड़े मन भर भार से खुद को किसी तरह अलग करती हुई , पूर्णिमा एक तरफ करवट में बदल जाती है, मानो यह करवट ही अब उसकी नियति बन चुका है| क्रमश.
#पश्चाताप #मौलिक






































"अरे सुन रही है! ले जा इसे ! बिल्कुल भी ध्यान नही रखती बेटे का "| अचानक पूर्णिमा को नींद से झकझोर दिया हो जैसे , साल भर के बेटे को गोद मे उठाकर पानी से भरे टब मे छप-छप करके खेल रहा था जो ,कपड़े बदलने लगती है | सूजी हुई आँखे ऐसी लग रहा थी मानो टूटी हुई आशाओं ने अभी -अभी खूब सिकाई की हो इस पर | पूर्णिमा बेटे को सुलाकर , किचन मे दोपहर के भोजन का प्रबन्ध करने मे
लग जाती है| आज रह -रह कर हृदय पर बार- बार जैसे कोई प्रहार कर रहा हो | मन चित्कारे मार रोने को कर रहा किन्तु, मुँह पर हाथ रख दिया हो जैसे किसी ने | मन मे अतीत का एक पन्ना जो खुल गया | आँखें अनियंत्रित हो सावन की बारिश की तरह, वेदना रूपी बादल को समेटे ठिठक कर बरस पड़े हो ,जैसे सारी पीड़ा को बाहर निकालकर फैक देना चाह रहे हो | अपनी भूल के प्रति पश्चाताप का मरहम लगाने की जिम्मेदारी, अपनी आँखों को सौंप ,अतीत की गहराई मे डूब ,उम्मीदो की चालबाजी को याद करने लगती है | बचपन मे माँ के गुजरने के साथ ही मानो बचपन भी चला गया हो घर मे बड़ी होने की यही सजा थी |
भाई बहनों की परवरिश मे पूर्णिमा को खुद का कभी ख्याल ही नही रहा | और एक दिन ऐसा आया कि , जिस घर को सम्भालने मे उसने अपने बचपन की तिलांजलि या ये कहे कि वक्त ने ही उससे छीन कर जिम्मेदारियाँ पकड़ा दी थी | उसे छोड़कर ससुराल जाना पड़ा | बहुत दिनो से पूर्णिमा के पिता बहुत परेशान थे ,इसका कारण, पूर्णिमा की उम्र की सारी लड़कियों की शादी तो क्या दो बच्चों की माँ तक बन गयीं थी, उन्हें देख कर पूर्णिमा के पिता का मन आत्मग्लानि से भर जाता | सैकड़ों रिश्ते देख डाले थे, किन्तु परेशानी का कारण योग्य लड़के मिलना न था बल्कि आर्थिक तंगी थी | जो लड़के सुन्दर, पढ़े -लिखे , नौकरी, व्यवसाय में और आर्थिक रूप से सम्पन्न थे , उनसे तो बात करने मे ही पसीने छूट जाते थे |
बचपन से लेकर पढ़ाई -लिखाई और नौकरी मे लगने वाली घूस, कुछ शादी को लेकर अरमान, अर्थात दो पहिया, चारपहिया वाहन की माँग | अपनी बेटी को देने के लिए यह सब कर्ज उतारना था , जिसे वे खुद को बेचकर भी पूरा नही कर सकते थे | अतः एक दिन किसी रिश्तेदार ने उनके हालात समझ कर या ये कहे कि उनका बोझ उतारने की मंशा से एक रिश्ता बताया | लड़का पहले से शादीशुदा किन्तु औरत का देहान्त हो गया था | पूर्णिमा से उम्र मे बहुत बड़ा था| पूर्णिमा के पिता की आर्थिक विपन्नता ने उन्हें , इतना दीन और असहाय बना दिया था ,कि बिना कुछ विचार किये ही एक झटके मे ही हाँ बोल दिया | समाज के अप्रत्यक्ष तानो ने सर पर एक चिन्ता की गठरी रख दी थी मानो | किसी तरह सर का बोझ कम करना था | शादी की खास कोई तैयारी न थी, बावजूद दौड़भाग की अधिकता के, आखिर जो भी करना था, कर्ज लेकर ही करना था | खैर! वह दिन भी आया जब प्रवेश द्वार पर बारात आकर खड़ी हुई | दुल्हे की लाल आँखे और घोड़ी पर से उतरते लड़खड़ाते कदम यह बता रहे थे कि, वह सुरापान कर नशे मे धुत है| चारो तरफ अपने रिश्तेदारों से घिरा दूल्हा उन्हीं के द्वारा सम्भाला जा रहा था | मंडप मे फेरे लेते समय भी दूल्हा लड़खड़ाते हुए, कभी सेहरा तो कभी खुद गिरते -गिरते रिश्तेदारों द्वारा सम्भाल लिया जाता | खैर किसी तरह सात फेरे पूरे कराये गये | दूल्हे कि तरफ से लड़की के चढ़ाव पर कोई खास साजो -सामान नही आया था ,या यूँ कहें कि बस किसी तरह से रश्म अदायगी ही निभाई गई थी| विवाह का निपटान रीति रिवाजो के अनुकूल ही हुआ, फर्क इतना था कि बिना दान दहेज के लड़की बिदा हो गई | कार से उतरते ही चार- पाँच औरतों के साथ , मंगलगीत गाती एक अधेड़ उम्र की महिला ,हाथ मे पूजा की थाल लिए, वर-वधू को स्वागत रश्म के पश्चात, घर के अन्दर ले जाती है | कुछ रश्मे अभी बाकी थी ,कि दूल्हा ही न जाने कहाँ नदारत हो गया थ| वहाँ उपस्थित महिलाए काना -पूसी करने लगी , उसी मे से कुछ शब्दों ने पूर्णिमा के कानों मे प्रवेश पाकर उसे विचलित कर दिया था | वह जान चुकी थी कि उसकी बदनसीबी ने अभी भी उसका पीछा नही छोड़ा | रात को सारे रिश्तेदार सो गये, पर पूर्णिमा को तो जैसे काले बादल ने घेर लिया था | आँखो की बरसात भी बादलों की कालिमा को साफ नही कर पा रही थी | अचानक धीरे से किवाड़ खुलने की आवाज आई, कमरे मे अंधेरा होने की वजह कुछ साफ नजर नही आ रहा था | पूर्णिमा थोड़ा डर गई उसे लगा मानो कोई समीप आकर बैठ गया और उसे अपनी तरफ पूरी शक्ति ले खींचने का प्रयास कर रहा है | पूर्णिमा खुद का बचाव करते छिटक कर दूर खड़ी हो जाती है, तभी लड़खड़ाती जिह्वा से "अरे! मुझसे भाग्ग रही हैं म्है तो तेरा पति हूँ |" और पूर्णिमा की तरफ इस प्रकार बढ़ता है जैसे भूखे शेर को बकरी दिख गई है | आखिर पुरूष बल के समक्ष मजबूर होकर पूर्णिमा ने स्वयं को समर्पित कर दिया |
सूखी धरा पर मानो बाढ़ ने तबाही का मंजर बिखेर दिया हो जैसे | पूर्णिमा का पति जैसे जंग जीतकर थकान को निद्रा के हवाले कर बेसुध हो गया | रात भर काले बादलो ने जल बरसाना नही छोड़ा , आज पूर्णिमा के चाँद ने अपनी चमक गवाँ दी हो जैसे | राख का ढेर हुई खुद को समेटी हुई रात एक करवट मे ही गुजार दी| सुबह कुंडी खड़कने की आवाज से, चौकती हुई पूर्णिमा ने उठकर, दरवाजा खोला तो देखा वही अधेड़ उम्र की महिला | "अरे! बहुरिया ले चाभी पकड़ हम
मुन्ना की माँसी हइन" " कल मुन्नवा अइसन दिमाग खराब करिस कि , सबसे परिचय करवाउब ही भूल गईन |" कुल रिश्तेदार चली गइन अब हमहूँ जा थईन | मुन्ना के माई -बाप बचपन मे ही गुजर गा रहिन अईस करके हमका रूकै के परिन पन अब हम जा थई बहुरिया ,अब आपन घर तुहिन सम्भाला | यह कह वह औरत पूर्णिमा के हाथ मे चाभी थमा देती है , पूर्णिमा भी समझने का प्रयास ही कर रही थी, कि आटो रिक्शा जो पहले से ही घर के बाहर इन्तजार कर रहा था वह औरत उस पर बैठकर "चला भइया!जल्दी चला! हमका पहिलइन देर होय गा बइन |" रिक्शा आगे बढ़ जाता है | नई दुल्हन को देखने की ललक सब मे होती है , खासकर तब जब एक बार पहले ही सुन्दरता के दर्शन हो चुके हो |पड़ोस की कुछ औरत जैसे उसके घर से बाहर निकलने का इन्तजार ही कर रही थी |पूर्णिमा की सुन्दरता को देख पड़ोस की औरते आपस मे ही "अरे !कितनी सुन्दर है बेचारी किस्मत फूट गई | न जाने क्या देखकर माँ बाप ने शादी की |" "हाँ बहन सच कह रही हो! मैने सुना माँ नही है बेचारी की, बाप भी बहुत गरीब है इसलिए कर दी होगी |" उनमे से एक बोली "अरे तो ! कोई अपनी बिटिया को भाड़ मे झोंक देता है क्या? देख न कितनी सुन्दर और मासूम है |" हम्म! लम्बी साँस के साथ "करम के लेख को भला कौन बदल सका बहन, जो लिखा वो तो भुगतना ही पड़ेगा |" पूर्णिमा पुनः कमरे मे दाखिल होती है | एक नजर बेसुध नींद मग्न पति पर डालते ही उसे रात की पीड़ा के अहसास ने फिर से छू लिया हो जैसे बादल अभी कहाँ छटे ही थे,आँखे पुनः बरस पड़ी | सामने दीवार पर ही लगे आइने के पास खड़ी होकर देर तक खुद को निहारती हुई मानो खुद से बाते कर रही हो, तभी सहसा "अरे! कोई है क्या! ", बाहर जोर से आवज आती है | जल्दी -जल्दी पल्लू को सिर पर करती हुई बाहर दरवाजे की ओंट मे खड़ी हो जाती है | बिना कुछ बोले शायद उस व्यक्ति को अपनी मौजूदगी का अहसास कराना था | उस व्यक्ति ने देखा दरवाजे की ओंट मे कोई खड़ा है, वह समझ गया कि यह कोई स्त्री ही है वह स्वयं भी अपनी नजरे घुमाकर दूसरी तरफ करता हुआ, मुन्ना है क्या? पूर्णिमा के सिर हिलाने पर उसी की परछाई पर नजर रखे उस व्यक्ति को हाँ मे जवाब मिला | "अरे! तो बाहर भेजिये न उसे ," वह आदमी बोला | "साले ने पैसे खा रख्खें हैं अभी तक नही दिये, चप्पले घिस गई चक्कर लगाते |" पूर्णिमा अन्दर जाकर पति को हिलाकर उठाने की कोशिश करती है | "अरे! क्या है? क्यों परेशान कर रही है मुझे |" नींद की झुंझलाहट मे उसका पति पूर्णिमा को झिड़कते हुए कहता है| तभी बड़ी ऊँची आवज से चौक कर बैठ जाता है | अरे मुन्ना! कहाँ छिपकर बैठा है! निकल बाहर ! , मेरा पैसा डकार गया ! शादी के पैसे कहाँ से आये तेरे पास? बाहर से ही वह व्यक्ति चिल्लाता हुआ बोले जा रहा था| तभी उसने पूर्णिमा से कहा "जा उससे कह दे मै घर पर नही हूँ|" पूर्णिमा असहाय, असमंजस से भरी, पर , "अरे! पर, वर मत कर! जो कहा है वो करके आ! |" पूर्णिमा बाहर पहले की तरह शान्त होकर खड़ी हो जाती है | वह व्यक्ति जैसे समझ गया हो पूर्णिमा के बिना कुछ बोले ही वह रहता है "उसने यह कह कर भेजा होगा कि कह दो मै घर पर नही |" मेरे घर पर भी बहन बेटियाँ है, खैर! इसे तो मै बाहर ही पकड़ूंगा ,साला बीबी को भेजकर झूठ बुलवाता है, तुझे तो मैं देख लूँगा |" बोलता हुआ वह व्यक्ति वहाँ से चला जाता है | पूर्णिमा उसी पलंग पर बैठ अपने पुराने दिनो को याद कर ही रही थी कि ,अचानक उसके कमर मे हाथ डाल किसी ने खीचने की कोशिश की खुद को छुड़ाने का प्रयास करने लगी, किन्तु शक्ति क्षीणता ने पुनः समर्पित करने को मजबूर कर दिया , शारीरिक तृप्ति को प्राप्त कर उसका पति कपड़े पहनते बाहर की तरफ निकल गया | रात्रि की तरह ही वह आसीम वेदना की अनुभूति को प्राप्त एक करवट मे ही वह घण्टो अपने भाग्य को कोसती पड़ी रही | पीड़ा के अभ्यास से थोड़ी शक्ति प्राप्त कर, धीरे -धीरे खुद को सम्भालती हुई पूर्णिमा, स्नानगृह मे प्रवेश कर जाती है , न जाने क्यों अपने ही शरीर के प्रति घृणित भाव रखती हुई ,देर तक उन स्थानो को साफ करती रही, जिसने उसे स्त्री की क्षीणता और असहाय अवस्था का आभास कराया | पूर्णिमा के दिन की शुरूआत, प्रात:स्नान के पश्चात दिन के पूजन से हुआ करती थी, पूर्णिमा स्नान के बाद इधर -उधर मंदिर तलाशती हुई , घर के कोनो से अपरचित जो थी किन्तु घर पर न कोई मन्दिर न भगवान | उस तलाशती नजर को जगह जगह यदि कुछ मिल रहा था, वह थी शराब की खाली बोतलें ,जो उसके भविष्य के दर्पण सा प्रतीत हो रहे थे | घर बहुत ही गन्दा ,छत सीलन से भरी थी, हॉलाकि कमरे काफी बड़े होने की वजह से धूप और हवा की कमी न थी | घर मे पुराने जमाने का छोटे परों वाला एक पंखा गुम्बदनुमा लटकता हुआ किन्तु हवा काफी अच्छी देता था| सामने कमरे मे दीवार से चिपकी हुई एक मेज जिस पर दीमको ने घर बना लिया था, उसी पर पीतल का एक पुराने समय का गुलदस्ता ,जो की काला पड़कर अपनी पहचान खो चुका था | पूर्णिमा उसे भी साफ कर उसकी पहचान वापस ले आई | पूरे दिन काम करने की वजह से वह बहुत थक चुकी थी | रसोई घर मे बनाने के लिए कुछ खास नही था, थोड़े से चावल पड़े थे ,जिसमे उसने दाल मिलाकर खिचड़ी तैयार की|
पति के घर से निकलने के बाद अभी तक कुछ पता न था |
पूर्णिमा उन पुरानी बातो को याद कर जिसने उसे अपने भाई- बहनो के साथ कुछ खुशनुमा पल दिये थे सोचती हुई, कब आँख लग गई पता ही न चला | मध्यरात्रि कुण्डी खड़काने की आवाज से अचानक उसकी नींद खुल जाती है, सामने पति को नशे मे धुत देख कर वह अलग कमरे मे जाने प्रयास करती है ,कि पति ने हाथ पकड़ कर कर पूरी तरह से भींच उसे बिस्तर पर पटक दिया |
साँसो को भींचे वह ,पीड़ा की चरम सीमा तक पहुँने के बाद मानो कोई उसके जख़्मो पर जल के छींटे मार रहा हो, अपने शरीर पर पड़े मन भर भार से खुद को किसी तरह अलग करती हुई , पूर्णिमा एक तरफ करवट में बदल जाती है, मानो यह करवट ही अब उसकी नियति बन चुका है| क्रमश.
#पश्चाताप #मौलिक






























"अरे सुन रही है! ले जा इसे ! बिल्कुल भी ध्यान नही रखती बेटे का "| अचानक पूर्णिमा को नींद से झकझोर दिया हो जैसे , साल भर के बेटे को गोद मे उठाकर पानी से भरे टब मे छप-छप करके खेल रहा था जो ,कपड़े बदलने लगती है | सूजी हुई आँखे ऐसी लग रहा थी मानो टूटी हुई आशाओं ने अभी -अभी खूब सिकाई की हो इस पर | पूर्णिमा बेटे को सुलाकर , किचन मे दोपहर के भोजन का प्रबन्ध करने मे
लग जाती है| आज रह -रह कर हृदय पर बार- बार जैसे कोई प्रहार कर रहा हो | मन चित्कारे मार रोने को कर रहा किन्तु, मुँह पर हाथ रख दिया हो जैसे किसी ने | मन मे अतीत का एक पन्ना जो खुल गया | आँखें अनियंत्रित हो सावन की बारिश की तरह, वेदना रूपी बादल को समेटे ठिठक कर बरस पड़े हो ,जैसे सारी पीड़ा को बाहर निकालकर फैक देना चाह रहे हो | अपनी भूल के प्रति पश्चाताप का मरहम लगाने की जिम्मेदारी, अपनी आँखों को सौंप ,अतीत की गहराई मे डूब ,उम्मीदो की चालबाजी को याद करने लगती है | बचपन मे माँ के गुजरने के साथ ही मानो बचपन भी चला गया हो घर मे बड़ी होने की यही सजा थी |
भाई बहनों की परवरिश मे पूर्णिमा को खुद का कभी ख्याल ही नही रहा | और एक दिन ऐसा आया कि , जिस घर को सम्भालने मे उसने अपने बचपन की तिलांजलि या ये कहे कि वक्त ने ही उससे छीन कर जिम्मेदारियाँ पकड़ा दी थी | उसे छोड़कर ससुराल जाना पड़ा | बहुत दिनो से पूर्णिमा के पिता बहुत परेशान थे ,इसका कारण, पूर्णिमा की उम्र की सारी लड़कियों की शादी तो क्या दो बच्चों की माँ तक बन गयीं थी, उन्हें देख कर पूर्णिमा के पिता का मन आत्मग्लानि से भर जाता | सैकड़ों रिश्ते देख डाले थे, किन्तु परेशानी का कारण योग्य लड़के मिलना न था बल्कि आर्थिक तंगी थी | जो लड़के सुन्दर, पढ़े -लिखे , नौकरी, व्यवसाय में और आर्थिक रूप से सम्पन्न थे , उनसे तो बात करने मे ही पसीने छूट जाते थे |
बचपन से लेकर पढ़ाई -लिखाई और नौकरी मे लगने वाली घूस, कुछ शादी को लेकर अरमान, अर्थात दो पहिया, चारपहिया वाहन की माँग | अपनी बेटी को देने के लिए यह सब कर्ज उतारना था , जिसे वे खुद को बेचकर भी पूरा नही कर सकते थे | अतः एक दिन किसी रिश्तेदार ने उनके हालात समझ कर या ये कहे कि उनका बोझ उतारने की मंशा से एक रिश्ता बताया | लड़का पहले से शादीशुदा किन्तु औरत का देहान्त हो गया था | पूर्णिमा से उम्र मे बहुत बड़ा था| पूर्णिमा के पिता की आर्थिक विपन्नता ने उन्हें , इतना दीन और असहाय बना दिया था ,कि बिना कुछ विचार किये ही एक झटके मे ही हाँ बोल दिया | समाज के अप्रत्यक्ष तानो ने सर पर एक चिन्ता की गठरी रख दी थी मानो | किसी तरह सर का बोझ कम करना था | शादी की खास कोई तैयारी न थी, बावजूद दौड़भाग की अधिकता के, आखिर जो भी करना था, कर्ज लेकर ही करना था | खैर! वह दिन भी आया जब प्रवेश द्वार पर बारात आकर खड़ी हुई | दुल्हे की लाल आँखे और घोड़ी पर से उतरते लड़खड़ाते कदम यह बता रहे थे कि, वह सुरापान कर नशे मे धुत है| चारो तरफ अपने रिश्तेदारों से घिरा दूल्हा उन्हीं के द्वारा सम्भाला जा रहा था | मंडप मे फेरे लेते समय भी दूल्हा लड़खड़ाते हुए, कभी सेहरा तो कभी खुद गिरते -गिरते रिश्तेदारों द्वारा सम्भाल लिया जाता | खैर किसी तरह सात फेरे पूरे कराये गये | दूल्हे कि तरफ से लड़की के चढ़ाव पर कोई खास साजो -सामान नही आया था ,या यूँ कहें कि बस किसी तरह से रश्म अदायगी ही निभाई गई थी| विवाह का निपटान रीति रिवाजो के अनुकूल ही हुआ, फर्क इतना था कि बिना दान दहेज के लड़की बिदा हो गई | कार से उतरते ही चार- पाँच औरतों के साथ , मंगलगीत गाती एक अधेड़ उम्र की महिला ,हाथ मे पूजा की थाल लिए, वर-वधू को स्वागत रश्म के पश्चात, घर के अन्दर ले जाती है | कुछ रश्मे अभी बाकी थी ,कि दूल्हा ही न जाने कहाँ नदारत हो गया थ| वहाँ उपस्थित महिलाए काना -पूसी करने लगी , उसी मे से कुछ शब्दों ने पूर्णिमा के कानों मे प्रवेश पाकर उसे विचलित कर दिया था | वह जान चुकी थी कि उसकी बदनसीबी ने अभी भी उसका पीछा नही छोड़ा | रात को सारे रिश्तेदार सो गये, पर पूर्णिमा को तो जैसे काले बादल ने घेर लिया था | आँखो की बरसात भी बादलों की कालिमा को साफ नही कर पा रही थी | अचानक धीरे से किवाड़ खुलने की आवाज आई, कमरे मे अंधेरा होने की वजह कुछ साफ नजर नही आ रहा था | पूर्णिमा थोड़ा डर गई उसे लगा मानो कोई समीप आकर बैठ गया और उसे अपनी तरफ पूरी शक्ति ले खींचने का प्रयास कर रहा है | पूर्णिमा खुद का बचाव करते छिटक कर दूर खड़ी हो जाती है, तभी लड़खड़ाती जिह्वा से "अरे! मुझसे भाग्ग रही हैं म्है तो तेरा पति हूँ |" और पूर्णिमा की तरफ इस प्रकार बढ़ता है जैसे भूखे शेर को बकरी दिख गई है | आखिर पुरूष बल के समक्ष मजबूर होकर पूर्णिमा ने स्वयं को समर्पित कर दिया |
सूखी धरा पर मानो बाढ़ ने तबाही का मंजर बिखेर दिया हो जैसे | पूर्णिमा का पति जैसे जंग जीतकर थकान को निद्रा के हवाले कर बेसुध हो गया | रात भर काले बादलो ने जल बरसाना नही छोड़ा , आज पूर्णिमा के चाँद ने अपनी चमक गवाँ दी हो जैसे | राख का ढेर हुई खुद को समेटी हुई रात एक करवट मे ही गुजार दी| सुबह कुंडी खड़कने की आवाज से, चौकती हुई पूर्णिमा ने उठकर, दरवाजा खोला तो देखा वही अधेड़ उम्र की महिला | "अरे! बहुरिया ले चाभी पकड़ हम
मुन्ना की माँसी हइन" " कल मुन्नवा अइसन दिमाग खराब करिस कि , सबसे परिचय करवाउब ही भूल गईन |" कुल रिश्तेदार चली गइन अब हमहूँ जा थईन | मुन्ना के माई -बाप बचपन मे ही गुजर गा रहिन अईस करके हमका रूकै के परिन पन अब हम जा थई बहुरिया ,अब आपन घर तुहिन सम्भाला | यह कह वह औरत पूर्णिमा के हाथ मे चाभी थमा देती है , पूर्णिमा भी समझने का प्रयास ही कर रही थी, कि आटो रिक्शा जो पहले से ही घर के बाहर इन्तजार कर रहा था वह औरत उस पर बैठकर "चला भइया!जल्दी चला! हमका पहिलइन देर होय गा बइन |" रिक्शा आगे बढ़ जाता है | नई दुल्हन को देखने की ललक सब मे होती है , खासकर तब जब एक बार पहले ही सुन्दरता के दर्शन हो चुके हो |पड़ोस की कुछ औरत जैसे उसके घर से बाहर निकलने का इन्तजार ही कर रही थी |पूर्णिमा की सुन्दरता को देख पड़ोस की औरते आपस मे ही "अरे !कितनी सुन्दर है बेचारी किस्मत फूट गई | न जाने क्या देखकर माँ बाप ने शादी की |" "हाँ बहन सच कह रही हो! मैने सुना माँ नही है बेचारी की, बाप भी बहुत गरीब है इसलिए कर दी होगी |" उनमे से एक बोली "अरे तो ! कोई अपनी बिटिया को भाड़ मे झोंक देता है क्या? देख न कितनी सुन्दर और मासूम है |" हम्म! लम्बी साँस के साथ "करम के लेख को भला कौन बदल सका बहन, जो लिखा वो तो भुगतना ही पड़ेगा |" पूर्णिमा पुनः कमरे मे दाखिल होती है | एक नजर बेसुध नींद मग्न पति पर डालते ही उसे रात की पीड़ा के अहसास ने फिर से छू लिया हो जैसे बादल अभी कहाँ छटे ही थे,आँखे पुनः बरस पड़ी | सामने दीवार पर ही लगे आइने के पास खड़ी होकर देर तक खुद को निहारती हुई मानो खुद से बाते कर रही हो, तभी सहसा "अरे! कोई है क्या! ", बाहर जोर से आवज आती है | जल्दी -जल्दी पल्लू को सिर पर करती हुई बाहर दरवाजे की ओंट मे खड़ी हो जाती है | बिना कुछ बोले शायद उस व्यक्ति को अपनी मौजूदगी का अहसास कराना था | उस व्यक्ति ने देखा दरवाजे की ओंट मे कोई खड़ा है, वह समझ गया कि यह कोई स्त्री ही है वह स्वयं भी अपनी नजरे घुमाकर दूसरी तरफ करता हुआ, मुन्ना है क्या? पूर्णिमा के सिर हिलाने पर उसी की परछाई पर नजर रखे उस व्यक्ति को हाँ मे जवाब मिला | "अरे! तो बाहर भेजिये न उसे ," वह आदमी बोला | "साले ने पैसे खा रख्खें हैं अभी तक नही दिये, चप्पले घिस गई चक्कर लगाते |" पूर्णिमा अन्दर जाकर पति को हिलाकर उठाने की कोशिश करती है | "अरे! क्या है? क्यों परेशान कर रही है मुझे |" नींद की झुंझलाहट मे उसका पति पूर्णिमा को झिड़कते हुए कहता है| तभी बड़ी ऊँची आवज से चौक कर बैठ जाता है | अरे मुन्ना! कहाँ छिपकर बैठा है! निकल बाहर ! , मेरा पैसा डकार गया ! शादी के पैसे कहाँ से आये तेरे पास? बाहर से ही वह व्यक्ति चिल्लाता हुआ बोले जा रहा था| तभी उसने पूर्णिमा से कहा "जा उससे कह दे मै घर पर नही हूँ|" पूर्णिमा असहाय, असमंजस से भरी, पर , "अरे! पर, वर मत कर! जो कहा है वो करके आ! |" पूर्णिमा बाहर पहले की तरह शान्त होकर खड़ी हो जाती है | वह व्यक्ति जैसे समझ गया हो पूर्णिमा के बिना कुछ बोले ही वह रहता है "उसने यह कह कर भेजा होगा कि कह दो मै घर पर नही |" मेरे घर पर भी बहन बेटियाँ है, खैर! इसे तो मै बाहर ही पकड़ूंगा ,साला बीबी को भेजकर झूठ बुलवाता है, तुझे तो मैं देख लूँगा |" बोलता हुआ वह व्यक्ति वहाँ से चला जाता है | पूर्णिमा उसी पलंग पर बैठ अपने पुराने दिनो को याद कर ही रही थी कि ,अचानक उसके कमर मे हाथ डाल किसी ने खीचने की कोशिश की खुद को छुड़ाने का प्रयास करने लगी, किन्तु शक्ति क्षीणता ने पुनः समर्पित करने को मजबूर कर दिया , शारीरिक तृप्ति को प्राप्त कर उसका पति कपड़े पहनते बाहर की तरफ निकल गया | रात्रि की तरह ही वह आसीम वेदना की अनुभूति को प्राप्त एक करवट मे ही वह घण्टो अपने भाग्य को कोसती पड़ी रही | पीड़ा के अभ्यास से थोड़ी शक्ति प्राप्त कर, धीरे -धीरे खुद को सम्भालती हुई पूर्णिमा, स्नानगृह मे प्रवेश कर जाती है , न जाने क्यों अपने ही शरीर के प्रति घृणित भाव रखती हुई ,देर तक उन स्थानो को साफ करती रही, जिसने उसे स्त्री की क्षीणता और असहाय अवस्था का आभास कराया | पूर्णिमा के दिन की शुरूआत, प्रात:स्नान के पश्चात दिन के पूजन से हुआ करती थी, पूर्णिमा स्नान के बाद इधर -उधर मंदिर तलाशती हुई , घर के कोनो से अपरचित जो थी किन्तु घर पर न कोई मन्दिर न भगवान | उस तलाशती नजर को जगह जगह यदि कुछ मिल रहा था, वह थी शराब की खाली बोतलें ,जो उसके भविष्य के दर्पण सा प्रतीत हो रहे थे | घर बहुत ही गन्दा ,छत सीलन से भरी थी, हॉलाकि कमरे काफी बड़े होने की वजह से धूप और हवा की कमी न थी | घर मे पुराने जमाने का छोटे परों वाला एक पंखा गुम्बदनुमा लटकता हुआ किन्तु हवा काफी अच्छी देता था| सामने कमरे मे दीवार से चिपकी हुई एक मेज जिस पर दीमको ने घर बना लिया था, उसी पर पीतल का एक पुराने समय का गुलदस्ता ,जो की काला पड़कर अपनी पहचान खो चुका था | पूर्णिमा उसे भी साफ कर उसकी पहचान वापस ले आई | पूरे दिन काम करने की वजह से वह बहुत थक चुकी थी | रसोई घर मे बनाने के लिए कुछ खास नही था, थोड़े से चावल पड़े थे ,जिसमे उसने दाल मिलाकर खिचड़ी तैयार की|
पति के घर से निकलने के बाद अभी तक कुछ पता न था |
पूर्णिमा उन पुरानी बातो को याद कर जिसने उसे अपने भाई- बहनो के साथ कुछ खुशनुमा पल दिये थे सोचती हुई, कब आँख लग गई पता ही न चला | मध्यरात्रि कुण्डी खड़काने की आवाज से अचानक उसकी नींद खुल जाती है, सामने पति को नशे मे धुत देख कर वह अलग कमरे मे जाने प्रयास करती है ,कि पति ने हाथ पकड़ कर कर पूरी तरह से भींच उसे बिस्तर पर पटक दिया |
साँसो को भींचे वह ,पीड़ा की चरम सीमा तक पहुँने के बाद मानो कोई उसके जख़्मो पर जल के छींटे मार रहा हो, अपने शरीर पर पड़े मन भर भार से खुद को किसी तरह अलग करती हुई , पूर्णिमा एक तरफ करवट में बदल जाती है, मानो यह करवट ही अब उसकी नियति बन चुका है| क्रमश.
#पश्चाताप #मौलिक